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चांदनी की झीनी ओढनी

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चांदनी की झीनी ओढनी
प्रीत की सुमधुर रागिनि
यमुना जैसे मंदाकिनि
शरद की ऋतु सुहावनी
आओ ना गिरिधर।

तज दो ना ये विराग
बसा लो मन में अनुराग
गूंज रहा प्रेम राग
जाग रहा है सुहाग
देखो मुरलीधर।

सखियाँ करे ठिठोली
बोल कर मीठी बोली
चली आई यूँ अकेली
तेरी प्यारी सहेली
ना तरसाओ श्रीधर।

ये मधुऋतु सुहानी
बिन तुम्हारे विरानी
न रूठो राधा रानी
आ गये प्रियकर।


चित्र गूगल से साभार






पीछे मुडकर

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अब अच्छा लगता है
देखना जिंदगी को
पीछे मुडकर।

जब पहुंच गया है
मंजिल के पास
अपना ये सफर।

क्या पाया हमने
क्या खोया
सोचे क्यूं कर।

अच्छे से ही
कट गये सब
शामो सहर।

सुख में हंस दिये
दुख में रो लिये
इन्सां बन कर।

कुछ दिया किसी को
कुछ लिया
हिसाब बराबर।

चित्र गूगल से साभार।

मन गई दिवाली

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गम की अमावस में न डाल हथियार तू
एक दीप तो हौले से जरा उजियार तू।

रोशनी की हर किरण चीरती है अंधेरा
देख रख हौसला, न मान हार तू।

मन में अगर हो आस तो पूरी करेंगे हम
यह ठान के ह्रदय में, बढ आगे यार तू।

जितनी है सोच काली उसे मांज के हटा
फिर देख अपने मन को यूँ चमकदार तू।

अपनी खुशी के फूल चमन में बिखेर दे
तो बहेगी खुशबू वाली, लेना बयार तू।

तेरे मन की रोशनी से हो उजास आस पास
तब मन गई दिवाली यही जान यार तू।






ये रिश्ते

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रिश्ते भी कितने अजीब होते है,
      कभी लगते हैं दूर, पर्वत से 
      कभी दिल के करीब होते हैं
      कभी बहते हैं झरने से कल कल
      तो कभी बर्फ से जम जाते हैं।

      रिश्तों को सींच के रखना जतन से
      तभी वे पौधों से लहलहाते हैं
      रोशनी में होते हैं सदा रोशन
      और फूलों से खिलखिलाते हैं।
      वरना वे भाप से उड जाते हैं
      और मरुथल से सूख जाते हैं।

      रिश्ते मांगते हैं गर्माहट
      ये शीत बक्सों में नही पलते
      रिश्तों को सांस खुल के लेने दो
      ये अंधेरों में भी नही खिलते।

      रिश्ते चुभते हैं कभी कांटों से
      मन को लोहू-लुहान करते हैं
      ये आँसूं भी लाते हैं आँखों में
      गलतफहमी में खो से जाते हैं
      ऐसे में बात काम आती है  
      तब खुशियां भी ये खिलाते हैं।
     
      रिश्ते अंधेरों में थाम लेते हाथ
      और फिर राह भी सुझाते है
      डगमगाने लगते है जैसे कदम
      सहारा दे के साध लेते हैं।
      ये रिश्ते भी कितने अजीब होते हैं।

दर्द इतना बढा

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दर्द इतना बढा सम्हाला न गया,
लाख चाहा मगर छुपाया न गया।



जाम आंखों के जो छलकने को हुए,
बहते अश्कों को फिर रुकाया न गया।

जख्म इतने दिये जमाने ने,
हम से मरहम भी लगाया न गया।

कोशिशें लाख कीं मगर फिर भी,
उनको आना न था, आया न गया।

ऊपरी तौर पे सब ठीक ही लगता लेकिन,
हाल अंदर का कुछ बताया न गया।

हम चल देंगे यकायक कि खाट तोडेंगे,
किसने जाना, किसी से जाना न गया।

जिंदगी का आज ये पल सच्चा है

इससे आगेको कुछ विचारा न गया।

चित्र गूगल से साभार

शुभ नववर्ष

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अब अंधेरे भी पिघलते जा रहे हैं,
फैलती हैं सूर्य की नव रश्मियाँ,
बह रही है पवन ताजी हर दिशा में,
खिल रही बदलाव की  नई कलियाँ।

धो कर के कर दो स्वच्छ, ये सारी व्यवस्था,
झाड दो जाले वे भ्रष्टाचार के
उसको मिले वह लाभ जो जिसके लिये है,
बहने दो झरने अब सद्विचार के।

देश भक्ति के गीत अब सब मिल के गाओ
बच्चों का बचपन वो वापिस फिर से लाओ,
बंद कर दो बेशरमी के नाच गाने
प्रकृति के कुछ नये नगमें गुनगुनाओ।

नारी का सम्मान हो, न हो अपमान कोई
उसकी सुरक्षा देश सी सर्वोपरी हो
हो अगर संकट में अपनी बहन कोई
आगे बढे रक्षा को सारे पिता भाई।

देश को हम आगे आगे ले चलेंगे
हर काम अपना दिल से हम पूरा करेंगे
जो जहां पर है, रहे मुस्तैद बन कर 
तब ही तो वतन का सपना सच करेंगे। 


एक पूरा माह घुमक्कडी रही । इसीसे लेखन वाचन को विराम रहा। पर अब वापिस घर आ गई हूँ तो आप सब के ब्लॉग भी पढना है । शुरुवात लिखने से भले हो पर पढना भी जारी रहेगा। सभी को शुभ नववर्ष।

कुछ और क्षणिकाएँ

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एक पत्थर उछाल तो दिया है कस कर
कि करे सूराख उनके ऊँचे महलो में
और झरें उसमें से हमारे प्राप्य,
पर अगर नही कुछ हुआ तो समझ लेना
कि गिध्दों नें दबोच लिया है उसे,
ताकि वे फोड सकें, हमारे जतन से
सेये हुए अंडे, अपनी हवस के लिये।

बहुत चाहते हैं कि तुम्हें मिले सफलता
पहली ही बार में, व्यवस्थापन के नियम की तरह
अगर कर सको, हमेशा सही, हर बार, पहली ही बार
पर मत होना निराश अगर ऐसा न हो,
क्यूं कि असफलता ही सफलता की पहली सीढी है।

वे करेंगे हर कोशिश तुम्हें बदनाम करने की
पर जारी रहे ये संघर्ष, यह मन में रखते हुए
कि बदनाम वही किया जाता है जिसका कोई नाम हो।

स्वार्थों की होड लेकर,
सब से आगे दौड कर
लड रहे हैं वे सारे खास
सिर्फ आम आदमी के लिये।

दिन नीके नीके

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रस, रंग, सुगंध, उमंग भरे
दिन नीके नीके औ निखरे।


मन में प्रिय सुधि जागे ऐसे
कोहरे से धूप छने जैसे
मन आकुल व्याकुल मीलन को
जगे रोम रोम में पुलक कैसे
फूलों पे मंडराते भंवरे
दिन नीके नीके औ निखरे।

खेतों में सोने सी सरसों
उनको आ जाना है परसों
कल का दिन बीतेगा कैसे
पिय की छवि देखत हूँ हर सों
बादल से धवल सुंदर संवरे
दिन नीके नीके औ निखरे।

शिशिर की हुई हलकी सिहरन
कोमल सी धूप खिली आंगन
बजते हवा के घुंगरू छनछन
गोरी के थिरक उठे कंगन
एक लहर उठी शब्दों के परे
दिन नीके नीके औ निखरे।

दुलहन सी धरा सजी सँवरी
मेहेंदी रचे, केसर की क्यारी
दूल्हे ऋतुराज के स्वागत में
छेडती तान कोयल प्यारी
गायक न्यारे, पंछी, भँवरे,
दिन नीके नीके औ निखरे



चित्र गूगल से साभार

हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के

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फरवरी महीना इस २०१४ साल का हमेशा याद रहेगा। २ फरवरी को मेरी जरा सी तबियत खराब हुई। पता चला वाइरल फीवर है फ्लू जैसा ही कुछ । दो तीन दिन क्रोसीन और विटामिन खा कर मै तो ठीक हो गई पर सुरेश, मेरे पति, बीमार हो गये । मेरी ही तरह मै इन्हे क्रोसीन और विटामिन देती रही पर बुखार था कि हटने का नाम ही नही ले रहा था फिर मैने शशांक (मेरा भतीजा जो ए.आय़.आय एम एस में न्यूरो सर्जन है) को फोन किया, वह तो था नही तो सरिता को ( शशांक की पत्नी, ये भी सफदरजंग हॉस्पिटल में गायनेकोलॉजिस्ट है) इनका हाल बताया, कि ३-४ दिन हो गये पर बुखार नही कम हो रहा और खाँसी भी बहुत है। उसने लिवोफ्लॉक्सिसीन देने के लिये बताया। १-२ दिन वह भी दिया पर कोई फायदा नही।  फिर से फोन किया तो उसने कहा कि हम शाम को आ रहे हैं। यह ९ तारीख की बात है। बाद में शशांक का फोन आया कि आपको दोनों के कपडे एक बैग में डाल कर ३-४ दिन की तैयारी से यहां आना है, यानि कि उनके घर। कल फिर मैं काका की सारी जांच करवा दूँगा। शाम को वे दोनों आये और हमें लिवा ले गये। दो तीन दिनों से ये खांसी के मारे रात को सो नही पा रहे थे तो मैने शशांक से पूछा कि इनको नींद की गोली दूं क्या। उसने कहा दे सकती हो। मैने यह नही बताया कि इसके पहले इन्होने कभी नींद की गोली ली नही है। झोल फ्रेश नाम की एक गोली पूरी मैने इनको दे दी और ये सो गये। सो क्या गये जैसे बेहोश से हो गये साँस भी तेज तेज और मुश्किल से आने लगी ।  कोई ढाई बजे मैने शशांक और सरिता को आवाज़ दी। सरिता ने कहा चलो अभी, जल्दी से इनको केजुअल्टी में ले चलते हैं । उसी वक्त गाडी निकाल कर आनन फानन में केजुअल्टी में ले गये । सारे टेस्ट हुए शुगर बहुत बढी हुई थी ३७०। ब्ल़डप्रेशर भी हाइ था। शशांक ने कहा मै बेड की व्यवस्था करता हूँ तुम लोग घर चलो। 
एक घंटे में शशांक भी वापस आ गये कहा, मैने उन्हे आइ सी यू में एडमिट करा दिया है आक्सीजन की जरूरत थी और  सारी चीजें भी वहां ठीक से कंट्रोल हो जायेंगी। आइ सी यू सुन कर ही डर सा लगा। तीन दिन ये आइ सी यू में रहे। रोग निदान था अपर रेस्पिरेटरी ट्रेक इनफेक्शन ( हमें बाद में बताया गया कि इसका मतलब था निमोनिया)।इस बीच मैने दोनों बेटों को फोन करके जानकारी दे दी। तय हुआ कि राजीव पहले आयेगा और फिर अमित आयेगा। इस तरह पंधरा दिन रह कर वे दोनों जब तक वापिस जायेंगे इनकी तबियत काफी सम्हल जायेगी। वहां तो मै भी केवल पांच मिनिट मिल सकती थी।  इतने से देर में ये यही कहते कि मुझे यहां से निकालो मै यहां नही रहूँगा। मै समझाती कि आपके थोडा ठीक होते ही आपको प्रायवेट वॉर्ड के कमरे में ले जायेंगे। आय सी यू में खाना पीना सब आय वी से ही था तो तीन दिन बाद जब ये प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट हुए तब ऐसे लग रहे थे जैसे महीनों से बीमार हों । कमरे में आते ही पहला सवाल ये, कि क्या तुम्हारे पास मेरे लिये कुछ खाने को है। उस वक्त तो कुछ नही था, क्यूंकि हम तो इन्हें कमरे में शिफ्ट करवाने आये थे। मैने कहा मैं भाभी को फोन करती हूँ  वह शाम तक कुछ ले आयेगी। हस्पताल में पूछा तो पता चला कि सुबह ही खाने के बारे में बताना होता है और हम तो कमरे में कोई तीन बजे पहुंचे थे।  शाम के ८ बजे जब शशांक और सरिता खिचडी लेकर आये तो पहला निवाला मुंह में जाते ही इनके आँखों में जो चमक आई मै उसे भुला नही सकती। कमजोरी बहुत थी, अपने आप उठ कर बाथरूम तक जाने की भी ताकत नही। फिर इनके लिये हमने रात और दिन के दो अटेन्डन्ट रखे। मै तो थी ही वहां। दो तीन दिन बाद इनको हम थोडा थोडा कॉरिडॉर में टहलाने ले जाते। हम कोई हफ्ता रहे वहां उस कमरे में। यह भी जाना कि हस्पताल में रहना कितना मुश्किल है । हर आधे घंटे बाद कोई ना कोई नर्स आकर कभी ब्लड शुगर तो कभी ब्लड प्रेशर लेने तो कभी दवाइयां देने आ जातीं। यह रात के तीन बजे तक चलता रहता। लेकिन सब लोग बहुत तत्परता से और अच्छी तरह अपना काम कर रहे थे। उनके बिना हमारा क्या होता।
अस्पताल में जब कोई मिलने आता तो इन्हे बहुत अच्छा लगता। मेरी ननद का बेटा अजय यहां टूर पर आया था वह भी हम से मिल के गया। धनंजय मेरा भतीजा भी अपनी पत्नी के साथ मिल कर गया।  जिस दिन हमें अस्पताल से छुट्टी मिली उसी दिन राजीव पहुंच गया। मेरे कंधे से जैसे बोझ़ सा हट गया। कमजोरी तो इनको बहुत थी। राजू ने घर आते ही इनकी दवाइयां डायेट वगैरे सब ठीक कर दिया वहां अस्पताल में जो डाएटिशियन ने चार्ट दिया था उसी में तीनों मील्स मे नॉन वेज डाल कर। थोडा पार्क में टहलना, एक्सरसाइज भी बताईं। उसके सात दिन रहने के बाद ये काफी कुछ सम्हल गये। कमजोरी तो थी ही साथ में खांसी थी कि इन्हें छोड ही नही रही थी। राजीव के जाने के बाद दूसरे दिन ही अमित आया। उसने कहा कि बाबा मेरे अनुमान से कहीं बेहतर लग रहे हैं । सुनकर मुझे और इनको भी तसल्ली हुई। अमित ने भी एक बहुत लंबा एक्सरसाइझ प्रोग्राम इन्हें बना कर दिया और जब तक वह रहा, करवाता भी रहा। नॉनवेज खाना और व्यायाम इनसे मसल-मास वापिस बनने में मदद मिली। अमित के जाते जाते ये थोडे और बेहतर हो गये पर खांसी और कमजोरी अभी भी थी। अमित के जाने के एक दिन बाद मेरी सहेली सुशीला आ गई। उसका आने का तो पहले से ही था पर समय एकदम सही बैठ गया और उसकी भी बहुत मदद हुई। उसके आने से घर में भी रौनक सी रही। मेरा धीरज भी बंधा रहा। घर का माहौल भी बदल सा गया, गप्पें, कविताएं, पुरानी यादें इन सब में समय बहुत बढिया गया। वह भी हमारे साथ व्यायाम करती। जब तक वह गई ये करीब करीब करीब सामान्य हो चले थे। दो महीने हो गये इस बात को शुरू हुए। ये मुश्किल दिन अपनों के साथ और मदद से आसान हो गये। मेरे मनमें जागृती फिल्म के गाने की, हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के, यही पंक्ति गूंज रही है। पर हम यानि हम सब, शशांक सरिता, भाभी, डॉक्टर्स, नर्सेज अटेन्डेन्टस् सभी, सिर्फ मै नही। अब ब्लॉग पर भी आना जाना चलने लगेगा।


भारत भाग्यविधाता

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अब फिर से खुलने वाले हैं किस्मत के द्वार,
हे देव, क्या होगा इस देश का,
जनता की जीत होगी या कि हार।
सुबुध्दी देना भारत के भाग्य विधाताओं को
ताकि लिखें अपनी किस्मत वो सही सही।
पहचान लें कि कौन है गलत और कौन नही।
किस पर लगायें निशान, कमल, पंजा या झाडू
कुछ ऐसा करो कि सही बैठे जोड
अच्छे लोग चुन कर आयें और हार जायें जुगाडू।
बहुत हुआ चोरों का राज, अब तो आ जाये सुराज।
सुन रहे हो ना दाता, ऐसी दो बुध्दी कि सुखी रहें सब भारत भाग्यविधाता।


सच्ची सरकार

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हर बार लगाई उम्मीद कुछ अच्छा होने की

न हुआ अब तक, अब तो कुछ हो जाये।

 

हरबार किया भरोसा हर शख्स के वादे पर,

अब कोई तो इन्साँ, वादा करके निभा जाये।

 

झूट और मक्कारी की दुनिया है बहुत देखी

अब तो दीनो-ईमान की दुनिया नजर आये।

 

बहुत दिन जी लिये फुटपाथ औ सडकों पर,

सर पे हमारे भी अब एक छत तो बन जाये।

 

रोटी कपडा मकानों के वादे सुन लिये बहुत,

दो वक्त का निवाला तो हर-एक को मिल जाये।

 

हमारे नौनिहाल भी इसी देश के बच्चे हैं,

उनके भी लिये पढने की व्यवस्था तो हो जाये।

 

चुनाव तो हो जायेंगे, नारे होंगे ठंडे,

इस देश को अब सच्ची सरकार तो मिल जाये।

गर्मी के कुछ त्रिदल

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तेज धूप गर्म हवा
पसीने से लथपथ काया
ग्रीष्म की माया।

मटके का ठंडा पानी,
हवा की एक लहर
लगे अमृत सी।

बिजली गुल पंखे बंद
टी. वी. नही तो क्या रंजन
कृपा सरकार की।

आम तरबूज खरबूजे
किसी के खस के परदे से
आई ठंडी हवा।

शरबत आइसक्रीम लस्सी
मलाई वाली कुल्फी
मज़े गर्मी के।

लेटकर पढो किताब
या लगालो सुलांट
अहा आई छुट्टी।

सिमला ऊटी या नैनीताल
या स्वित्झरलैंड का कमाल
हिसाब पाकिट का।

अभी कैसा घूमना
बच्चों के इम्तहां
फ्रोफेशनल कॉलिज के.




चित्र गूगल से साभार।

छोटी बातों में

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छोटी बातों में बडा दम है,
बडों के पास बडा अहम है।

हमने कब किसीसे होड करी
जो है हम पे वो भी क्या कम है।

सवाल तो बस टिके रहने का है
चमकार तो केवल भरम है।

रूप पे इतना दंभ क्यू गोरी
माना के अभी तेरा परचम है।

सूरतें तो बदल ही जाती हैं
इल्मो-सीरत का हम पे भी करम है।

इन्सां की शक्ल भोडिये का दिल
जो दिखाये न रब वही कम है।

जिस जनता की करनी है सेवा
लूटते उसी को बन के हमदम हैं।

अब जो भी आयेंगे आगे
देखते हैं सख्त या नरम हैं

मैं भी क्या करूं न कैसे लिखूं,
मेरे पास भी तो कलम है.



चित्र गूगल से साभार।

खामोशी

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डूबना चाहती हूँ मै खामोशी के इस तालाब में
नही अच्छी लगती हैं ये आवाजें
रेलो की, हवाई जहाज़ों की, मशीनों की, ट्रक और कारों की
आदमियों की भी नही। झूटे मेकअप में सजी झूटी बातें।

बारिशों, आंधियों, तूफानों, बिजलियों की भी नही, गुनगुन, चिकमिक,
पत्तों की सरसराहट भी नही।
अपने अंदर सिमटना चाहती हूँ मै, बे-आवाज़।
हवा जो सरसराती है त्वचा पर वही ठीक है।

लेकिन बाहरी खामोशी जगा देती है भीतरी कोलाहल
इसका क्या करूँ?
आवाजें क्रोध की, अपूर्ण इच्छाओं की, अहंकार की
मत्सर की, मोह की, इनसे कैसे पीछा छुडाऊँ?
मै स्तब्ध हूँ, आँखें बंद। एक आवाज आती है, फिर से आवाज़.........
पर इस बार एकदम अंतस से, गंभीर
शायद इन सब आवाज़ों की औषधी।
Sगं गणपतये नमः
Sगं गणपतये नमः
Sगं गणपतये नमः

और शांत हो जाती हैं बाकी आवाज़ों की तरंगे।


चित्र गूगल से साभार।

मालगुंड (कोकण) की सैर

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इस बार वापिस आने के बाद महीने के अंदर ही हमने घूमने का कार्यक्रम बना लिया। मालगुंड, पुणे,  पनवेल, ठाणे और वापिस।
मालगुंड- गणपतिपुळे के साथ ही लगा हुआ कोकणका एक गाँव जो अभी भी अपनेगांव-रूप को जतन किये हुए है। मिलिंद और अचला ( मेरा छोटा भाई और भावज) ने वहीं अब अपना घर बसा लिया है। रांची में बहुत साल किर्लोस्कर इंजिनों की मरम्मत और बिक्री का काम करने के बाद अवकाश का शांत सा बसेरा।
इन दोनों के वहां जाकर बसने का एक कारण अचला की बहन अलका और बहनोई श्री वैद्यजी की मालगुंड में जा कर बसना था।  वे चाहते थे संग साथ तो बस उन्होने ही जमीन खरीदवाई और मकान भी बनवा दिया। मिलिंद अचला को सिर्फ २-४ बार वहां चक्कर लगाने और चेक काटने की जरूरत पडी और चाभी उनके हाथ में। सुंदरसा  दो तल्ला मकान २ शयनागार ऊपर दो नीचे, नीचे ही बडा सा हॉलनुमा ड्रॉइंगरूम कम लिविंग रूम कम किचन और डायनिंग। ऊपर बडी सी छत और नीचे बाहर अहाता पेड पौधे लगाने के लिये। सडक पार करते ही एक बडी सी केवडे की झाडी और झाडी के तुरंत  बाद सुंदर सा रत्नाकर यानि समंदर। यह मै इस लिये बता रही हूँ क्यूं कि हम रहते हैं दिल्ली जैसे महानगर के एक फ्लैट में और ये सब कुछ कल्पना ही है। बहर हाल हमारे सफर पर आते हैं।
रत्नागिरि स्टेशन पर जब हमारी त्रिवेंद्रम राजधानी कोई २२ घंटे के सफर के बाद पहुँची तो मिलिंद अचला को स्टेशन पर पाया वे गाडी लेकर हमें लेने आये थे क्यूं कि रत्नागिरि से मालगुंड के लिये वही सही था। बस सेवा नही के बराबर तो गाडी या टेम्पो ही हैं जाने आने के साधन।
हमारा सामान जिसे उठाने के दिल्ली में कुली ने ६०० रुं लिये थे मालगुंड में महज १२० रूं लिये। इस के बाद हम मिलिंद की ईको में बैठ कर चल पडे मालगुंड की और। कोई एक घंटे की सुखद यात्रा जिसमें बराबर आपको सागर दर्शन होता रहता है । यह किसी तरह कैलिफोर्निया की Seventeen miles scenic drive से कम न थी । घर पहुँचे नहा धो कर खाना खाया और आराम किया। शाम को गये बीच पर घूमने लंबे खाली बीच पर दो चक्कर लगाये और सूर्यास्त का बहुत सुंदर दृष्य का आनंद लिया। सूर्यदेव धीरे धीरे उत्तरी गोलार्ध की और प्रस्थान कर रहे थे। क्षितिज पर जहां आकाश और सागर का मिलन होता सा लग रहा था, हम प्रतीक्षा में थे कि सूर्य देव अब सागर में डुबकी लगा कर उत्तरी गोलार्ध में कहीं उदित हो रहे होंगे, उनके इसी ही रूप को देख कर कवि ने कहा होगा,
उदये सविता रक्तः रक्तश्चास्तमने गतः
संपत्तौच विपत्तौच महताम् एकरूपता।
हमने कुछ फोटो भी क्लिक किये।
एक मिलिंद के हथेली पर सूरज का भी लिया था पर कहीं खो गया। ( CLICK VDO  MVI 0044)
जाते ही हमने मिलिंद से कह दिया कि हम तो कोकण दो तीन बार घूम चुके हैं, तो इस बार इरादा सिर्फ
सागर किनारे रहने का आनंद उठाने का है । रोज सुबह उठते ही चाय पान के बाद हम पहुंच जाते बीच पर। मिलिंद-अचला ओर अलका तथा वैद्य साहब की तो यह रोज की ही दिनचर्या थी।तो दूसरे दिन सुबह हम पहुंचे बीच पर तोसागर देख कर ही आनंद आ गया। (CLICK VDO  MVI 0056)
 हर दिन सागर का अलग ही रूप होता था एक दिन तो हमने इतने सी गल्स देखे कि मज़ा आ गया। आप भी आनंद उठायें। (CLICK VDO  MVI 0964 )
CLICK VDO  MVI 0965
CLICK VDO  MVI 0966
 मिलिंद को फिर भी चैन न था । रोज़ ही शाम को गाडी निकाल कर कभी कोई बीच तो कभी किसी मंदिर का प्रोग्राम बन ही जाता था। वैसे भी कोंकण में समंदर और मंदर ही हैं देखने को और है सम्पन्न प्रकृति जो हर दिन अपना नया रूप लेकर प्रस्तुत होती है। सागर को ही लें वह हर दिन अलग दिखता है, सुबह, शाम, दोपहर भी अलग दिखता । नारियल, आम और काजू के पेड और काजू तथा आम के फूलों की खुशबू एक अदभुत वातावरण की सृष्टि करती थी। इन फूलों को हिंदी में बौर तथा मराठी में मोहर बोलते हैं।
ऐसे ही एक दिन मिलिंद हमें जयगड के गणेश मंदिर ले गया। ये मंदिर जिंदल स्टील एन्ड पॉवर कंपनी के इलाके में है। बहुत ही सुंदर बनाया है। मंदिर का परिसर साफ सुथरा है तथा चारों तरफ बगीचा है जिसमें रंगबिरंगे फूल खिल रहे थे और तरह तरह के पेड  पौधे भी अपनी हरियाली बिखेर रहे थे। मंदिर के अंदर की गणेश प्रतिमा ने तो मन मोह लिया। । मन में अथर्वशीर्ष का गणेश वर्णन तैरने लगा।
एकदंतम् चतुर्हस्तम् पाशमांकुशधारिणम,
रदंचवरदम् हस्तै बिभ्राणम् मूषकध्वजम्।
रक्तम् लंबोदरम् शूर्प कर्णकम् रक्तवाससम्,
रक्तगंधानुलिप्तांगम् रक्तपुष्पैसुपूजितम।
बहुत देर तक मंदिर में ही रहे फिर चारों तरफ चक्कर लगाया, मन बहुत प्रसन्न था लगा कि शाम सार्थक हो गई । काश कि हमारे सारे मंदिरों का रख-रखाव ऐसा ही हो। (CLICK VDO  विडियो ००६१)
रोज जब हम बीच पर टहलते मेरी आंखें रत्नाकर के द्वारा फेके गये रत्नों यानि विभिन्न प्रकार के शंख, सीपियां और दूसरे समुद्री जीवों के  अवशेषों की तलाश में रहतीं। इसमें अचला की बहुत मदद होती थी. उसकी आँखें इस कार्य के लिये काफी प्रशिक्षित थीं। मेरे लाये हुए रत्नों में से कुछ की तस्वीरें तो मै आपको दिखा ही सकती हूँ। (CLICK VDO  विडियो MVI 968)
सोला तारीख को दत्त जयंती थी । मिलिंद ने कहा, यहां गांव के दत्तमंदिर में जन्मोत्सव होता है देखोगी,मैने कहा,”नेकी और पूछ पूछ। और इस तरह हम शाम को गांव के मंदिर जा पहुँचे। मंदिर सुंदर ढंग से सजाया गया था और ठसाठस भरा था, जैसे सारा गांव उमड पडा हो। यही हकीकत थी। गाँव के सारे लोग वहीं थे।
पहले तो दत्तगुरु के भजन हुए। फिर नामस्मरण हुआ, दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा। फिर दत्त जन्म हुआ। जैसे सचमुच हुआ हो इसी तरह औरतों नें उन्हें पालने में डाल कर झूला झुलाया, लोरियां गाईं । जन्मोत्सव के पेडे बाँटे गये और नामकरण हुआ। फिर  नवजात दत्तात्रय को दर्शन हेतु गोदी में उठा कर हर भक्त के पास ले जाया गया। यह सब मेरे लिये अनोखा था, लगा गोपाल नीलकंठ दांडेकर जी के किसी उपन्यास में मेरा प्रवेश हुआ है और में उसका एक हिस्सा बन गई हूँ। अद्भुत अनुभव। फिर दत्तात्रय जी  की आरती के बाद हम सब विदा हुए। बहुत ही आग्रह के साथ हमें दूसरे दिन के खाने का (पारणं) न्योता मिला पर हमारा अन्य कार्यक्रम था तो हम इसका आनंद नही उठा पाये। रात का वक्त होने से हम फोटो नही खींच पाये इसका मलाल रहेगा।  रात को छत पर गये और चांद देखा मिलिंद गुनगुनाया चांद फिर निकला और सुरेश ने चांद को कैमरे में कैद कर लिया।(CLICK VDO  विडियो MVI 1034)
फिर एक दिन मिलिंद ने कहा चलो आज मालगुंड के सारे मंदिर घुमाता हूँ तुम्हे । और हम गांव देवी,
विठ्टल मंदिर, राम मंदिर तथा एक अलग सा मंदिर जिसमें कई देवी देवताओं की मूर्तियां थीं।जाखा देवी, चंडी देवी, रवळनाथ,शिव आदि (CLICK VDO  विडियो 1006&7)
राम मंदिर छोटासा था किन्तु मूर्तियां बहुत सुंदर थीं। हमने वहां रामरक्षा का पाठ भी किया। (CLICK VDO  विडियो विडियोMVI1027)
 शिव मंदिर तो हमने पहले भी देखा था वहां का रख रखाव और मंदिरों के मुकाबले ज्यादा अच्छा है। आप भी देखें (CLICK VDO  विडियो mvi 1028)
अचला रोज़ कुछ न कुछ खास बनाती और मिलिंद अपने चुटकुले सुनाता या फिर बांसुरी बजाता।  आप भी सुनें बांसुरी की धुन। (CLICK VDO  विडियो MVI 991&992)
मिलिंद के वहाँ से नेवरे गांव बहुत पास था वह हमारे मामा (गाडगीळ) लोगों के पूर्वजों गांव था तो  मिलिंद ने कहा चलो मामा के गांव चलते हैं। वहां गये वहां पर गजानन महाराज का अच्छा सा मंदिर है जहां हर साल उत्सव होता है। पर अब वहां हमारे मामा के गोत्र का कोई भी व्यक्ति नही रहता। सुन कर बडा अजीब लगा कैसे सारे के सारे लोग अपना गांव छोड कर शहर चले जाते हैं। पिछली बार आये थे तो हम अपने गांव गये थे ( मायके का गांव घोळप) पर वहां कम से कम एक परिवार तो हमारे नाम और गोत्र का था और हेदवी गांव (ससुराल का गांव) में तो अभी भी काफी सारे जोगळेकर हैं।
यह सब करते और रोज बीच पर सैर करते, दिन पर लगा कर निकल गये और आखिर हमारा पुणे जाने का समय आ ही गया। पर मालगुंड में बिताया समय हमेशा याद रहेगा। और हाँ इस प्रवास की एक और उपलब्धी रही, अचला बहुत अच्छे रसगुल्ले घर में बनाती है तो मैने भी सीख लिये। कभी बताऊंगी आपको दाल चावल रोटी पर।

पुणे में विजूताईइनकी चचेरी बहन की और मेरी भाभी अर्चना की मेहमान नवाज़ी का लुत्फ उठाया। दो मराठी मूव्हीज देखीं उनमें से एक पितृऋण बहुत ही अच्छी लगी। मेरी दोस्त सुशीला से मिले खूब सारी कविताएं सुनी और सुनाई। पनवेल में मेरे भांजे रवी उसकी पत्नी जयू और मेरे जीजाजी से मुलाकात की। ठाणें में देवर प्रकाश और देवरानी जयश्री से मिले। मराठी नाटक देखें । खान पान तो सब जगह हर घर का स्पेशल रहा।  जनवरी ७ तारीख को वापिस दिल्ली पहुंचे और ठंड का वो कहर कि बस। पर घर तो घर ही है, ठंड हो या गरमी।

मेरा सब सामान गया

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शमा जली है जलने दे
मन को आज मचलने दो
तेरा मेरा किस्सा क्या
जो किस्सा है चलने दो।

हमने सबसे प्यार किया
कोई जलता है जलने दो
मैं क्यूँ उस पर ध्यान करूं
मुझे अपने रस्ते चलने दो।

अफसर को ये कहते सुना
लोग बला हैं टलने दो
ये कैसा जनतंत्र चला
कि जनता को कुचलने दो।

सब सबूत जिस फाइल में
हैं, उसको ही जलने दो,
या फिर तेजाब में डुबो
और फिर उसको गलने दो।

आज का बेटा ये कहता
समय के साथ बदलने दो
हुई पुरानी आपकी बात
नई हवा को चलने दो।

इन बातों के बीच कोई
गर्माये तो उबलने दो
मेरा सब सामान गया
अब मुझको भी चलने दो।




यादें

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घने कोहरे सी मन को भर देती हैं यादें
भूल तो जाऊँ पर भूलने कहाँ देती हैं यादें।

वह पुराना गीत जब कोई गुनगुनाता है,
जाने कहां से जहन में चली आती हैं यादें।

पलटने लगती हूँ जब कोई पुरानी सी किताब,
कोई सूखा सा फूल कर देता है ताज़ा यादें।

किसी सहेली को जब देखती हूँ प्रेम में मगन
जाने क्यूं आँखों से आंसू सी छलकती हैं यादें।

वे नोट्स के मार्जिन में तुम्हारे मैसेज
पढूं या ना पढूं दिल पे लिखी रहती हैं यादें।

यह क्या मेरे ही जहन की हैं खुराफातें
या फिर सब को ऐसे ही सताती हैं यादें।

क्या तुम सचमुच ही भूल गये हो मुझको
या फिर कभी कभी आती हैं तुम्हें मेरी यादें।


बुढापे का सुख

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बुढापे में भी सुख होता है।

सुख- किसी भी बात की जल्दी ना होने का,

सुख- कोई जिम्मेवारी ना होने का,

सुख- दोपहर में किताब लेकर लेट पाने का,

सुख- नाती पोतों को प्रति-दिन बडा होते देखने का,

सुख- नातेरिश्ते में गप्पे लगा पाने का,

सुख- दोस्तों से लंबी बातें कर पाने का,

सुख छुट्टी ही छुट्टी होने का,

सुख सिर्फ ३० से ५० प्रतिशत किराये में इधर उधर घूम पाने का,

सुख- फटी बिवाइयों में घंटों मरहम मलने का,

बुढापे में भी सुख होता है, सिर्फ उसे मजे लेकर भोगना आना चाहिये।



चित्र गूगल से साभार



धुंधली सी उम्मीद

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राह खत्म है फिर भी चल रहा हूँ मै
कागज़ नही पर शब्द ही छलका रहा हूँ मै।

आँखों के आँसू सूख गये बडे दिन हुए,
दिल में कहीं नमी की, खोज में रहा हूँ मैं.

कैसे कोई किसी से इतनी बेरुखी करे,
सवाल का जवाब नही पा रहा हूँ मै।

मैने तो अपनी ओर से कोशिश भी की बहुत,
उस बंद दर को कहाँ खुलवा सका हूँ मै।

एक धुंधली सी उम्मीद कि शायद खुलेगी राह,
इसी आस को दिल में बसाये जा रहा हूँ मै.






चित्र गूगल से साभार।

राखी

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सावनी फुहार रिमझिम
चंदा की धुंधली टिमटिम
राखियों की चमकार
बहनों का ढेर सारा प्यार
अहा आई राखी।

अक्षत, रोली, मिठाई,
नारियल, राखी सजाई
दीप अक्षुण्णता का
बहन के मन की खुशी का
ले आई राखी।

मन में मंगल कामना,
चहुँ-ओर सद्भावना
जा पहुँचे सीमा पर
प्रहरी भाई जहां पर
ये स्नेहिल राखी।


आप सब ब्लॉगर भाई बहनों को राखी की शुभ कामनाएँ।
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